घुटन से बच के कहीं साँस ले नहीं सकते
जहाँ भी जाएँ ये काला धुआँ तो सर पर है
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जो गुम-गश्ता है उस की ज़ात क्या है
जाने किस आलम-ए-एहसास में खोए हुए हैं
घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर
पिछली रफ़ाक़तों का न इतना मलाल कर
इक बे-निशान हर्फ़-ए-सदा की तरफ़ न देख
'अरमाँ' बस एक लज़्ज़त-ए-इज़हार के सिवा
हिना-रंग हाथों में
भूल गया ख़ुश्की में रवानी
हुआ है क़र्या-ए-जाँ में ये सानेहा कैसा
अपनी सच्चाई का आज़ार जो पाले हुए हैं
ताज-ए-ज़र्रीं न कोई मसनद-ए-शाही माँगूँ
कभी तो आ के मिलो मेरा हाल तो पूछो