हुआ है क़र्या-ए-जाँ में ये सानेहा कैसा
मिरे वजूद के अंदर है ज़लज़ला कैसा
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न हर्फ़-ए-शौक़ न तर्ज़-ए-बयाँ से आती है
बुझी नहीं अभी ये प्यास भी ग़नीमत है
मैं लिख कर हो सकूँगा सुर्ख़-रू क्या
तह-ए-अफ़्लाक ही सब कुछ नहीं है
पिछली रफ़ाक़तों का न इतना मलाल कर
ब-ज़ाहिर ये वही मिलने बिछड़ने की हिकायत है
अपनी सच्चाई का आज़ार जो पाले हुए हैं
जाने किस आलम-ए-एहसास में खोए हुए हैं
घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर
घुटन से बच के कहीं साँस ले नहीं सकते
नज़र के सामने सहरा-ए-बे-पनाही है
दिमाग़-ओ-दिल पे हो क्या असर अँधेरे का