ये आस्तान-ए-यार है सेहन-ए-हरम नहीं
जब रख दिया है सर तो उठाना न चाहिए
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इक अदा इक हिजाब इक शोख़ी
पाता नहीं जो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर को मैं
रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में
अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियाँ
ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया
मुझ से जो चाहिए वो दर्स-ए-बसीरत लीजे
इश्क़ है इक कैफ़-ए-पिन्हानी मगर रंजूर है
न कुछ फ़ना की ख़बर है न है बक़ा मालूम
वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से
यहाँ कोताही-ए-ज़ौक़-ए-अमल है ख़ुद गिरफ़्तारी
मुझ को ख़बर रही न रुख़-ए-बे-नक़ाब की