आइने पर तो है भरोसा मुझे
उस से क्यूँ मुँह छुपाए बैठी हूँ
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शहज़ादी के कानों में जो बात कही थी इक तू ने
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ
बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
ज़ख़्म खा के भी मुस्कुराते हैं
मुझ को ख़्वाबों के बाग़ में ला कर
तेरी यादें बहाल रखती है
अपनी हालत पे आँसू बहाने लगे