नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
जो मर जाता मिरी वाबस्तगी में
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पौ फटते ही ट्रेन की सीटी जब कानों में गूँजती है
शहज़ादी के कानों में जो बात कही थी इक तू ने
डूबने की न तैरने की ख़बर
नज़्म
किस के मातम में रो रही है रात
मुझ को ख़्वाबों के बाग़ में ला कर
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
ख़ुद मैं धूनी रमाए बैठी हूँ
ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
अपनी हालत पे आँसू बहाने लगे
सदियों को बेहाल किया था