ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
अपने जैसा हाल किया था
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ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
तेरी यादें बहाल रखती है
सदियों को बेहाल किया था
सुनहरी धूप से चेहरा निखार लेती हूँ
शाम खुलती है तेरे आने से
बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
आइने पर तो है भरोसा मुझे
नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
किस के मातम में रो रही है रात
अपनी आँखें जो बंद कर देखूँ