सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Gulzar
Allama Iqbal
Wasi Shah
Rahat Indori
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
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इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए
क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
ये भी रहा है कूचा-ए-जानाँ में अपना रंग
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
क़यामत आएगी माना ये हादिसा होगा
इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं
फ़न उड़ानों का जब ईजाद किया था मैं ने
जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका