ज़िंदगी मेरी मुझे क़ैद किए देती है
इस को डर है मैं किसी और का हो सकता हूँ
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अगर दश्त-ए-तलब से दश्त-ए-इम्कानी में आ जाते
मेरे जिस्म से वक़्त ने कपड़े नोच लिए
अजीब हालत है जिस्म-ओ-जाँ की हज़ार पहलू बदल रहा हूँ
दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं
शब की आग़ोश में महताब उतारा उस ने
आँसुओं से लिख रहे हैं बेबसी की दास्ताँ
सारे दुख सो जाएँगे लेकिन इक ऐसा ग़म भी है
अपने दुख-दर्द का अफ़्साना बना लाया हूँ
अगर साए से जल जाने का इतना ख़ौफ़ था तो फिर
ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है