बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
उँगलियाँ आप मोअज़्ज़िन ने धरीं कान के बीच
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क़ज़ा ने हाल-ए-गुल जब सफ़्हा-ए-तक़दीर पर लिक्खा
रंग में हम मस से बतर हो चुके
ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए
है दिल में घर को शहर से सहरा में ले चलें
सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है
चश्म-ए-तर जाम दिल-ए-बादा-कशाँ है शीशा
देखा तो एक शो'ले से ऐ शैख़-ओ-बरहमन
रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है
ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान
बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें