ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान
तिरा तो शैख़ तनूर ओ शिकम बराबर है
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इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
बस पा-ए-जुनूँ सैर-ए-बयाबाँ तो बहुत की
मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो
क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है
कल मय-कदे की जानिब आहंग-ए-मोहतसिब है
देख आईना जो कहता है कि अल्लाह-रे मैं
रखता है यूँ वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम दोश पर
उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत
इस बज़्म में पूछे न कोई मुझ से कि क्या हूँ
रंग में हम मस से बतर हो चुके
सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में
सिपाह-ए-इशरत पे फ़ौज-ए-ग़म ने जो मिल के मरकब बहम उठाए