उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत
आया हमें इक हाथ से ताली का बजाना
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सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में
छुप के नज़रों से इन आँखों की फ़रामोश की राह
बस पा-ए-जुनूँ सैर-ए-बयाबाँ तो बहुत की
नर्गिस-ए-मस्त तिरी जाए जो तुल बरसर-ए-गुल
मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
आहें अफ़्लाक में मिल जाती हैं
ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं
रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है
काबा तो संग-ओ-ख़िश्त से ऐ शैख़ मिल बना
सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना
इस बज़्म में पूछे न कोई मुझ से कि क्या हूँ