सैलाब से आँखों के रहते हैं ख़राबे में
टुकड़े जो मिरे दिल के बस्ते हैं दो-आबे में
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आहें अफ़्लाक में मिल जाती हैं
ख़्वाहिश-ए-सूद थी सौदे में मोहब्बत के वले
दस्त-ए-नासेह जो मिरे जेब को इस बार लगा
हाँ मियाँ सच है तुम्हारी तो बला ही जाने
रुश्द-ए-बातिन की तलब है तो कर ऐ शैख़ वो काम
आवे जो नाज़ से मिरा वो बुत-ए-सीम-बर ब-बर
मेरी गो आह से जंगल न जले ख़ुश्क तो हो
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
छुप के नज़रों से इन आँखों की फ़रामोश की राह
ये रिंद दे गए लुक़्मा तुझे तो उज़्र न मान
मत तंग हो करे जो फ़लक तुझ को तंग-दस्त