क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है
ख़ामा भी मिरे हाथ में अंगुश्त-ए-शशुम है
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रह-रवाँ कहते हैं जिस को जरस-ए-महमिल है
ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले
ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो
इश्क़ में बू है किबरियाई की
यकसाँ लगें हैं उन को तो दैर-ओ-हरम बहम
जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे
ग़ैरत-ए-गुल है तू और चाक-गरेबाँ हम हैं
चश्म-ए-तर जाम दिल-ए-बादा-कशाँ है शीशा
क़लम सिफ़त में पस-अज़-मरातिब बदन सना में तिरी खपाया
कल मय-कदे की जानिब आहंग-ए-मोहतसिब है
आहें अफ़्लाक में मिल जाती हैं