क़लम सिफ़त में पस-अज़-मरातिब बदन सना में तिरी खपाया
बदन ज़बाँ में ज़बाँ सुख़न में सुख़न सना में तिरी खपाया
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दिल ख़ूँ है ग़म से और जिगर यक न-शुद दो शुद
ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था
जो चश्म-ओ-दिल से चढ़ा दूँ नाले ब-आब-ए-अव्वल दोवम-ब-आतिश
सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है
रखता है यूँ वो ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम दोश पर
उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत
नर्गिस-ए-मस्त तिरी जाए जो तुल बरसर-ए-गुल
जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ
ऐ इश्क़ तू हर-चंद मिरा दुश्मन-ए-जाँ हो
जो तुम और सुब्ह और गुलनार-ए-ख़ंदाँ हो के मिल बैठे
कल मय-कदे की जानिब आहंग-ए-मोहतसिब है
दिला उठाइए हर तरह उस की चश्म का नाज़