बुलबुल से कहा गुल ने कर तर्क मुलाक़ातें
ग़ुंचे ने गिरह बाँधीं जो गुल ने कहीं बातें
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आहें अफ़्लाक में मिल जाती हैं
अपनी मर्ज़ी तो ये है बंदा-ए-बुत हो रहिए
हाँ मियाँ सच है तुम्हारी तो बला ही जाने
बाँग-ए-तकबीर तो ऐसी है 'बक़ा' सीना-ख़राश
इस लब से रस न चूसे क़दह और क़दह से हम
यकसाँ लगें हैं उन को तो दैर-ओ-हरम बहम
क्या तुझ को लिखूँ ख़त हरकत हाथ से गुम है
चश्म-ए-तर जाम दिल-ए-बादा-कशाँ है शीशा
काबा तो संग-ओ-ख़िश्त से ऐ शैख़ मिल बना
जब मेरे दिल जिगर की तिलिस्में बनाइयाँ
दस्त-ए-नासेह जो मिरे जेब को इस बार लगा