दिलबरों के शहर में बेगानगी अंधेर है
आश्नाई ढूँडता फिरता हूँ मैं ले कर दिया
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मैं तिरे डर से रो नहीं सकता
रात उस तुनुक-मिज़ाज से कुछ बात बढ़ गई
मत सता मुझ को आन आन अज़ीज़
न फ़क़त यार बिन शराब है तल्ख़
अर्श तक जाती थी अब लब तक भी आ सकती नहीं
ये आरज़ू है कि वो नामा-बर से ले काग़ज़
सीरत के हम ग़ुलाम हैं सूरत हुई तो क्या
लहू टपका किसी की आरज़ू से
कहा अग़्यार का हक़ में मिरे मंज़ूर मत कीजो
पूछता कौन है डरता है तू ऐ यार अबस
जा कहे कू-ए-यार में कोई