उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
कि जिस के घर का दरवाज़ा नहीं है
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उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
अब तक तो यही पता नहीं है
बदन के लोच तक आज़ाद है वो
बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
सभी इंसाँ फ़रिश्ते हो गए हैं
नाम उस का
एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
वो: एक
तुम तो कुछ ऐसे भूल गए हो जैसे कभी वाक़िफ़ ही नहीं थे