क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया
वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं
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वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
आरज़ू है वफ़ा करे कोई
तुम अगर अपनी गूँ के हो माशूक़
हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ 'दाग़'
जिस ख़त पे ये लगाई उसी का मिला जवाब
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं