लड़खड़ा कर गिर पड़ी ऊँची इमारत दफ़अतन
दफ़अतन तामीर की कुर्सी पे खंडर जम गया
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फ़ज़ा-ए-शाम ज़िया-ए-सहर उसी से मिली
तौक़ीर अँधेरों की बढ़ा दी गई शायद
ग़ैज़ का सूरज था सर पर सच को सच कहता तो कौन
इस बार भी शोलों ने मचा डाली तबाही
याद था 'सुक़रात' का क़िस्सा सभी को 'एहतिराम'
बज़्म-ए-तन्हाई में अक्स-ए-शो'ला-पैकर था कोई
हादसों का सिलसिला मंज़र-ब-मंज़र जम गया
शेर के रूप में देते रहना
मुंतशिर हर शय क़रीने से सजा दी जाएगी
साथ रखिए काम आएगा बहुत नाम-ए-ख़ुदा