हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
प्यास का ज़ाइक़ा पानी की तरह होता है
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टूटता है तो टूट जाने दो
अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
उस ने देखा जो मुझे आलम-ए-हैरानी में
शामियानों की वज़ाहत तो नहीं की गई है
कभी भुलाया कभी याद कर लिया उस को
रात सितारों वाली थी और धूप भरा था दिन
उस को जाने दे अगर जाता है
मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'