'फ़ैसल' मुकालिमा था हवाओं का फूल से
वो शोर था कि मुझ से सुना तक नहीं गया
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तू ख़्वाब-ए-दिगर है तिरी तदफ़ीन कहाँ हो
तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त
कभी देखा ही नहीं इस ने परेशाँ मुझ को
मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
कभी भुलाया कभी याद कर लिया उस को
मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था
दुख नहीं है कि जल रहा हूँ मैं
आज फिर आईना देखा है कई साल के बाद
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है