चंद ख़ुशियों को बहम करने में
आदमी कितना बिखर जाता है
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गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
हिज्र मौजूद है फ़साने में
अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
आवाज़ दे रहा था कोई मुझ को ख़्वाब में
हर्फ़ अपने ही मआनी की तरह होता है
शजर से बिछड़ा हुआ बर्ग-ए-ख़ुश्क हूँ 'फ़ैसल'
अदावतों में जो ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लगी हुई है
रात सितारों वाली थी और धूप भरा था दिन
रख़्त-ए-सफ़र है इस में क़रीना भी चाहिए
मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था