रात सितारों वाली थी और धूप भरा था दिन
जब तक आँखें देख रही थीं मंज़र अच्छे थे
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मैं ग़ार में था और हवा के बग़ैर था
जिस्म थकता नहीं चलने से कि वहशत का सफ़र
हर शख़्स परेशान है घबराया हुआ है
तेरी आँखें न रहीं आईना-ख़ाना मिरे दोस्त
मैं ज़ख़्म खा के गिरा था कि थाम उस ने लिया
इन लोगों में रहने से हम बेघर अच्छे थे
ख़ौफ़ ग़र्क़ाब हो गया 'फ़ैसल'
रोज़ आसेब आते जाते हैं
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
शामियानों की वज़ाहत तो नहीं की गई है