तुम्हीं कहो कि तुम्हें अपना समझ के क्या पाया
मगर यही कि जो अपने थे सब पराए हुए
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Habib Jalib
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या कहते थे कुछ कहते जब उस ने कहा कहिए
ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
मुझ तक उस महफ़िल में फिर जाम-ए-शराब आने को है
किस ख़राबी से ज़िंदगी 'फ़ानी'
बे-अजल काम न अपना किसी उनवाँ निकला
किसी के एक इशारे में किस को क्या न मिला
मैं ने 'फ़ानी' डूबती देखी है नब्ज़-ए-काएनात
उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'
ना-मेहरबानियों का गिला तुम से क्या करें
की वफ़ा यार से एक एक जफ़ा के बदले
क्या कहिए कि बेदाद है तेरी बेदाद
सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन रात के शिकवे