वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा
तो इंतिज़ार में बैठा हुआ हूँ शाम से मैं
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धूप बोली कि मैं आबाई वतन हूँ तेरा
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
औरों ने उस गली से क्या क्या न कुछ ख़रीदा
साँप
जिस तरह पैदा हुए उस से जुदा पैदा करो
एक बार उस ने बुलाया था तो मसरूफ़ था मैं
जब उस को देखते रहने से थकने लगता हूँ
बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी
ख़ुद-आगही
साहिब-ए-इश्क़ अब इतनी सी तो राहत मुझे दे
मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से
हमवारी