सुनते हैं कि इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे
लेकिन अब आधे रस्ते से लौट के वापस जाए कौन
Gulzar
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न कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती
वही दो-चार चेहरे अजनबी से
ये बस्ती कब दरिंदों से थी ख़ाली
ये सन्नाटा बहुत महँगा पड़ेगा
माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता
सफ़र
आ के हो जा बे-लिबास
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
जब जंगल बस्ती में आया