ग़म-ओ-अलम से जो ताबीर की ख़ुशी मैं ने
बहुत क़रीब से देखी है ज़िंदगी मैं ने
Rahat Indori
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Ahmad Faraz
Gulzar
Anwar Masood
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(738) Peoples Rate This
जुरअत-ए-इश्क़ हवस-कार हुई जाती है
साक़ी ने निगाहों से पिला दी है ग़ज़ब की
दिल मिरा शाकी-ए-जफ़ा न हुआ
अजीब कश्मकश है कैसे हर्फ़-ए-मुद्दआ कहूँ
कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा
हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है
महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ तेरी ही बज़्म-ए-नाज़ है
तिरे ग़म के सामने कुछ ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं है
शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है
किसी अपने से होती है न बेगाने से होती है
लब पे झूटे तराने होते हैं
ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता