फ़िराक़ गोरखपुरी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का फ़िराक़ गोरखपुरी (page 7)
नाम | फ़िराक़ गोरखपुरी |
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अंग्रेज़ी नाम | Firaq Gorakhpuri |
जन्म की तारीख | 1896 |
मौत की तिथि | 1982 |
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
मय-कदे में आज इक दुनिया को इज़्न-ए-आम था
लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है
कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
जुनून-ए-कारगर है और मैं हूँ
जिसे लोग कहते हैं तीरगी वही शब हिजाब-ए-सहर भी है
जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है
इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं
हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया
हाथ आए तो वही दामन-ए-जानाँ हो जाए
हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है
ग़म तिरा जल्वा-गह-ए-कौन-ओ-मकाँ है कि जो था
'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है
इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से
दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला
बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
अपने ग़म का मुझे कहाँ ग़म है
अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
आँखों में जो बात हो गई है
आज भी क़ाफ़िला-ए-इश्क़ रवाँ है कि जो था