घर से बाहर नहीं निकला जाता
रौशनी याद दिलाती है तिरी
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ख़ून पलकों पे सर-ए-शाम जमेगा कैसे
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद
मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र जाती है हर रात मिरे
चुप रहे देख के उन आँखों के तेवर आशिक़
वो मौज-ए-ख़ुनुक शहर-ए-शरर तक नहीं आई
ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ
चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए
किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती