इक ख़ौफ़ सा दरख़्तों पे तारी था रात-भर
पत्ते लरज़ रहे थे हवा के बग़ैर भी
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दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
कैसा मकान साया-ए-दीवार भी नहीं
क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या
है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है
गुज़र रही है मगर ख़ासे इज़्तिराब के साथ
किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे