किस दर्द से रौशन है सियह-ख़ाना-ए-हस्ती
सूरज नज़र आता है हमें रात गए भी
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रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा
है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
घर से बाहर नहीं निकला जाता
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
साहब दिलों से राह में आँखें मिला के देख
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
चुप रहे देख के उन आँखों के तेवर आशिक़