आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
दरिया जो मुंजमिद है कभी मौजज़न भी था
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नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
सर-ए-सहरा-ए-दुनिया फूल यूँ ही तो नहीं खिलते
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे
क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं
मैं और मिरी ज़ात अगर एक ही शय हैं
लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'
ख़ून पलकों पे सर-ए-शाम जमेगा कैसे