अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
जलते नहीं मासूम गुनाहों के दिए भी
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लफ़्ज़ों का साएबान बना लेने दीजिए
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
आख़िर चराग़-ए-दर्द-ए-मोहब्बत बुझा दिया
सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
ज़िद में दुनिया की बहर-हाल मिला करते थे
दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
दीवाने इतने जम्अ' हुए शहर बन गया
रिश्ता जिगर का ख़ून-ए-जिगर से नहीं रहा
निभेगी किस तरह दिल सोचता है
वो मौज-ए-ख़ुनुक शहर-ए-शरर तक नहीं आई