भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
आईना देखें तो चेहरे नज़र आते हैं कई
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घर से बाहर नहीं निकला जाता
ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी
आठों पहर लहू में नहाया करे कोई
बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की
साहब दिलों से राह में आँखें मिला के देख
दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
हर सम्त लहू-रंग घटा छाई सी क्यूँ है
सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए
दिलों के आइने धुँदले पड़े हैं
मिज़ाज अलग सही हम दोनों क्यूँ अलग हों कि हैं