बोसे बीवी के हँसी बच्चों की आँखें माँ की
क़ैद-ख़ाने में गिरफ़्तार समझिए हम को
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सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
क़दम क़दम पे हैं बिखरी हक़ीक़तें क्या क्या
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
दिलों के आइने धुँदले पड़े हैं
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
रुख़ हवाओं के किसी सम्त हों मंज़र हैं वही
ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती 'फ़ुज़ैल'
है इबारत जो ग़म-ए-दिल से वो वहशत भी न थी
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना