तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना
किसी का ज़िक्र करे कौन एहतिसाब के साथ
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सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते
निभेगी किस तरह दिल सोचता है
नौमीद करे दिल को न मंज़िल का पता दे
गुज़र रही है मगर ख़ासे इज़्तिराब के साथ
मैं और मिरी ज़ात अगर एक ही शय हैं
मैं उजड़ा शहर था तपता था दश्त के मानिंद
हर सम्त लहू-रंग घटा छाई सी क्यूँ है
अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में