तिरे बदन में मेरे ख़्वाब मुस्कुराते हैं
दिखा कभी मेरे ख़्वाबों का आईना मुझ को
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अख़्लाक़ ओ शराफ़त का अंधेरा है वो घर में
सर-ए-सहरा-ए-दुनिया फूल यूँ ही तो नहीं खिलते
भूले-बिसरे हुए ग़म फिर उभर आते हैं कई
निभेगी किस तरह दिल सोचता है
दिल यूँ तो गाह गाह सुलगता है आज भी
दिल मुतमइन है हर्फ़-ए-वफ़ा के बग़ैर भी
चेहरे मकान राह के पत्थर बदल गए
सुब्ह तक हम रात का ज़ाद-ए-सफ़र हो जाएँगे
ख़ुद लफ़्ज़ पस-ए-लफ़्ज़ कभी देख सके भी
साहब दिलों से राह में आँखें मिला के देख
गिर भी जाएँ तो न मिस्मार समझिए हम को
दीवाने इतने जम्अ' हुए शहर बन गया