खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
इक फ़ज़ा सी बना के पीता हूँ
लोग पानी मिला के पीते हैं
मैं निगाहें मिला के पीता हूँ
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
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Habib Jalib
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Ahmad Faraz
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Gulzar
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अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
हल्क़ा-ए-मय से किसी को भी निकलने न दिया
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा