अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
जज़्बात हो रहे थे जवाँ पैरहन के बीच
क्या झिलमिली भी रोकती गोरे बदन की आँच
पिघला हुआ था शोला रवाँ पैरहन के बीच
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जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
दिल-ए-ग़म-ज़दा पे गुज़र गया है वो हादसा कि मिरे लिए
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह