अजनबी बन के हँसा करती है
ज़िंदगी किस से वफ़ा करती है
क्या जलाऊँ मैं मोहब्बत के चराग़
एक आँधी सी चला करती है
Wasi Shah
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Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
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सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
हल्क़ा-ए-मय से किसी को भी निकलने न दिया
नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
आसरा जब भी कोई टूटे है
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर