रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
सुब्ह होने को है अब 'तर्ज़' को सो जाने दे
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'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
आसरा जब भी कोई टूटे है
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले