समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले
बजा दो पाँव की छागल कि नग़्मगी फैले
नक़ाब ज़ुल्फ़ों की चेहरे पे ख़ूब है लेकिन
हटा दो चाँद से बादल कि चाँदनी फैले
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खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
अजनबी बन के हँसा करती है
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर