तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
जाँ की बाज़ी लगा के पीता हूँ
ग़म से घबरा के लोग पीते हैं
ग़म को मैं मय बना के पीता हूँ
Gulzar
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दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
अजनबी बन के हँसा करती है
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
किस लिए अब हयात बाक़ी है
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले