अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
और शहर-ए-लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल
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बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
आसरा जब भी कोई टूटे है
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
मय-कशी का शबाब बाक़ी है
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच