नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
सुब्ह की लाली का मंज़र उस की रंगत का निखार
झूम कर रह रह के उस के खिलखिलाने का समाँ
फूल बरसाए हवा से जैसे शाख़-ए-हर-सिंघार
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अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
आसरा जब भी कोई टूटे है
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच