ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
हाथ आएगी फ़क़त दो गज़ ज़मीं मरने के बाद
Anwar Masood
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Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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Rahat Indori
Mir Taqi Mir
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समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले
अजनबी बन के हँसा करती है
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे