जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे
खिलखिलाहट में भी आवाज़-ए-सिनाँ हो जैसे
तीर चलते हुए देखूँ तो बचाऊँ दिल को
उफ़ वो अंगड़ाई कि अर्जुन की कमाँ हो जैसे
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नक़्श तीखे बाँकी चितवन दाँत मोती की क़तार
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
किस लिए अब हयात बाक़ी है
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई