'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
'मीर' की कोई ग़ज़ल गाओ कि कुछ चैन पड़े
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अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
आसरा जब भी कोई टूटे है
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा