लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
दूसरों की ही मसर्रत को ख़ुशी समझा हूँ मैं
क्या बताऊँ कौन हूँ मैं ने तो देखा ही नहीं
आप ने जो कह दिया ख़ुद को वही समझा हूँ मैं
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किस लिए अब हयात बाक़ी है
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
जिस्म तो मिट्टी में मिलता है यहीं मरने के बाद
खो के ख़ुद उन को पा के पीता हूँ
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार