ग़म की तारीक फ़ज़ाओं से निकलने न दिया
शम्अ रौशन जो कोई की भी तो जलने न दिया
तुम ने ये क्या किया ऐ झूटी उमीदो कि मुझे
सुब्ह की आस तो दी रात को ढलने न दिया
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रह-ए-इश्क़ में ग़म-ए-ज़िंदगी की भी ज़िंदगी सफ़री रही
किस लिए अब हयात बाक़ी है
अब क्या बताएँ क्या था समाँ पैरहन के बीच
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ
साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
कितने जुमले हैं कि जो रू-पोश हैं यारों के बीच
ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
समेट लो ज़रा आँचल कि रौशनी फैले